एपल ने पिछले बुधवार को ऐलान किया कि वह अक्टूबर-दिसंबर 2018 तिमाही के लिए रेवेन्यू अनुमान 5.5% घटा रही है। करीब 20 साल में पहली बार ऐसा हुआ।
आईफोन की बिक्री उम्मीद के मुताबिक नहीं रहने की वजह से कंपनी ने रेवेन्यू
गाइडेंस में कमी की। एपल 29 जनवरी को तिमाही नतीजे जारी करेगी।
गाइडेंस में कमी की वजह से एपल के शेयर में पिछले गुरुवार को 10% गिरावट
आ गई। इस गिरावट से कंपनी का मार्केट कैप एक ही दिन में 5 लाख करोड़ रुपए
घट गया था।
लाइफस्टाइल डेस्क. एक
रिसर्च में दावा किया गया है कि सहारा मरुस्थल हर 20 हजार साल में बदलता
है। यह कभी सूखा तो कभी हर-भरा हो जाता है। मैसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) की रिसर्च में शोधकर्ताओं ने कहा कि मरुस्थल का काफी
हिस्सा (3.6 मिलियन स्क्वैयर) उत्तरी अफ्रीका में है जो हमेशा से सूखा नहीं
था। यहां की चट्टानों पर बनी पेंटिंग और जीवाश्मों की खुदाई से मिले
प्रमाण बताते हैं कि यहां पानी था। इंसान के अलावा पेड़-पौधों और जानवरों
की कई प्रजातियां भी मौजूद थीं। यह रिसर्च साइंस एडवांसेस मैगजीन में प्रकाशित हुई है।
एमआईटी के शोधकर्ताओं ने मरुस्थल के पिछले 2 लाख 40 हजार सालों का इतिहास समझने के लिए पश्चिमी अफ्रीका के किनारों पर जमा
धूल-मिट्टी का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं का कहना है कि हर 20 हजार साल में
सहारा मरुस्थल और उत्तरी अफ्रीका बारी-बारी से पानीदार और सूखे रहे हैं। यह क्रम लगातार जारी रहा है। जलवायु में यह परिवर्तन पृथ्वी की धूरी में बदलाव के कारण होता है।
जब पृथ्वी पर गर्मियों में सबसे ज्यादा सूरज की किरणें आती हैं तो
मानसून की स्थिति बनती है और यह पानीदार जगह में तब्दील हो जाता है। जब
गर्मियों में पृथ्वी तक पहुंचने वाली सूर्य की किरणों की मात्रा में कमी
आती है तो मानसून की गतिविधि धीमी हो जाती है और सूखे की स्थिति बनती है,
जैसी आज है।
हर साल उत्तर-पूर्व की ओर से चलने वाली हवाओं के कारण लाखों टन रेत
अटलांटिक महासागर के पास दक्षिण अफ्रीका के किनारों पर पर्तों के रूप में
जमा हो जाती हैं। धूल-मिट्टी की ये मोटी पर्तें उत्तरी अफ्रीका के लिए
भौगोलिक प्रमाणों की तरह काम करती हैं।
मोटी पर्तों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि यहां सूखा था और जहां पर धूल कम है वो जगह इस बात का प्रमाण है कि क्षेत्र में कभी पानी मौजूद था।
सहारा मरुस्थल से जुड़ी रिसर्च का नेतृत्व करने वाले एमआईटी के पूर्व
अनुसंधानकर्ता चार्लोट ने पिछले 2 लाख 40 हजार साल तक जमा हुईं पर्तों का
विश्लेषण किया है।
चार्लोट के अनुसार, पर्तों में धूल के अलावा रेडियोएक्टिव पदार्थ थोरियम
के दुर्लभ आइसोटोप भी पाए गए हैं। इसकी मदद से यह पता किया गया है कि
धूल-मिट्टी ने कितनी तेजी से पर्तों का निर्माण किया है।
हजारों साल पुरानी चट्टानों की आयु का पता लगाने के लिए
यूरेनियम-थाेरियम डेटिंग तकनीक का प्रयोग किया जाता है। रिसर्च के मुताबिक,
समुद्र में बेहद कम मात्रा में रेडियोएक्टिव पदार्थ यूरेनियम के घुलने से एक नियत मात्रा में थोरियम का निर्माण होता रहा है, जो इन पर्तों में मौजूद
है।
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